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Showing posts from April, 2011

When thoughts turn into words..shayari borns

एक छोटी सी पेशकश मेरी तरफ से मुझसे  खफा होकर तुम  कंहा जाओगे  ,मेरी वफ़ा को ऐसे कैसे भुलाओगे मैं तो वो अक्स हूँ तेरी चिलमन का, बंद आँखों में भी हमे ही पाओगे --आशीष लाहोटी    २४-मार्च-११ एक आशा रात है आगोश में लेने को ,कुछ अनबुने ख्वाबों की सौगात लाएगी  |  क्या हुआ गर कल नहीं था अपना ,फिर एक नयी सुबह आयेगी  | -आशीष लाहोटी      ३०-मार्च -११ तन्हाई  वो फिर आयेगी एक बार दिल को ये समझा रहे हैं ,दर्दे तन्हाई में बस यूंही बीते जा रहे हैं | -आशीष लाहोटी     ७-अप्रैल-११

तलाश

वो आए  इस कदर  हमारी जिंदगी में ,की तन्हा दिल का मंजर  बन गए जो लब हमारे सिल गए थे शायद ,उन लबों के वो शब्द बन गए जिंदगी कितनी हसीन है ,अब आया था समझ में हकीकत हुए वो आज ,जो कभी थे सपने पर इस ज़माने की बेदर्दी देखो ,वो ना समझ पाए इस रिश्ते को आज हम फिर से तन्हा हैं और फिर उसी की तलाश है | -आशीष लाहोटी     २७-मार्च-११

Yad aTa Hai !!!

This poem is dedicated to VIT Alumni's....Hope you will be able to relate this with your college memories jindagi ke is mod pe,jab hum us waqt se bahut dur nikal gaye un palon ko sametna chahta hun,jo maine college(VIT) me bitaye wo hostel me mummy papa ka yun chod jana or phir 'F block' ki diwaron me kaid ho jana tab anjaan logon ka apna ban jana yad ata hai :| wo light jane par dustbin ka niche fenkna or phir taraha taraha ki awajen nikalana tab 'rajesh govindan' ka mota danda yad ata hai :P wo bas 5 minute or soch ke alarm band kar dena or phir subaha ki pahli class me der se pahnchna tab chupke se class me ja ke baith jana yad ata hai :-) wo purani jeans bina dhule bas pahnte hi jana or phir deo laga ke bina nahaye hi class bhag jana tab doston se shirt udhar lena yad ata hai  ..hehe wo professors ke boring lectures sunte hi neend aa jana or phir unke PJ's pe pagalon ki taraha hasna tab bunk marke 'Foodcourt' me veg puff khana

छोटा था तो अच्छा था !

कभी मैं भी बच्चा था   वो पल कितना सच्चा था उमर का थोडा कच्चा था   पर छोटा था तो अच्छा था  जब दो आंसु की कीमत पे  जो चाहे वो मिल जाता था तब एक छोटे बहाने से  मैं स्कूल से छुट्टी पाता था जब खिलोनों गुड्डे गुड़ियों के  चारों और मेरा संसार था तब मिटटी के घरौंदों से  मैं अपनी  दुनिया सजाता था जब मम्मी की छोटी डांट पे भी  मुझे जोर से रोना आता  था तब उनकी गोद में सर रखके  मैं सारी खुशियाँ पाता था जब पापा के काम से आते ही  पढने का नाटक करता था तब उनका सर पे हाथ भी  आशीर्वाद बन जाता था  जब भाई के साथ में मिल मैं खूब शरारत करता था तब मेरी सारी गलती भी वो अपने सर ले लेता था जब दीदी हर बात पे  मेरी खूब खिंचाई करती थी तब अपने हिस्से की चीज़े  भी मुझको दे देती थी जब दोस्तों की टोली में  मैं खूब धमाल मचाता था तब दोस्ती का वादा भी  सच्चे दिल से निभाता था जब छोटा सा संसार था  न कोई जीवन जंजाल था तब मैं बिलकुल नादान था  पर छोटा था तो अच्छा था  उन खट्टी मीठी यादों में   मैं आज भी रोता हँसता हूँ वो बचपन फिर न आयेगा  पर आज भी मैं एक बच्चा हूँ  | --आशीष लाहोटी    8-अप्रैल-११